रविवार, 20 अप्रैल 2014

राजपूत और शराब मांसाहार का सेवन (जीभ के कलुषित स्वाद को परम्परा की झूटी आड़)

राजपूत शब्द सुनते ही वो तेजस्वी रोबीला चेहरा और प्राण प्रणके साथ खड़े देव तुल्य मानुष  की छवि  दिमाग के किसी कोने में उमड़ने को उतावली होती है,.  पर क्या ये  छवि है?? हमारी ये  बात सोचने की है  ??आज हमारी छवि सिवाई शराब खोरी या मासाहार और शाम को सुंदरी के पीछे अपना  वर्तमान भूत और भविष्य लुटा देने को आतुर दिखाई देते है . और इन सब के लिए हम जिम्मेदार मानते है कुछ हद तक हमारी पूर्व पीढ़ी को ? .  माफ़ करना दोस्तों इसके लिए न कोई पूर्वज जिमीदार है न ही कोई दुसरा बल्कि केवल हम और हम ही जिम्मेदार  है इस के लिए और केसे  सच्ची घटना में मरे बहुत ही निकट मित्र (राजपूत) की शादी में गया वहा शाम को जब बारात शामेले के बाद पांडाल में पहुची तो वहा जेसा की सब जगह होता शराब वहा शुरू की गयी और मेरे युवा साथी अपने मस्त होने लगे थोड़ी दर तो सब ठीक रहा उसके बाद जो नहीं पिने वाले थे उनके साथ जोर जबरिया का खेल शुरू हुआ कुछ  मान गये  कुछ मेरे जेसे लोग नहीं माने  तो उनका आखिर हमला  की आप राजपूत ही नहीं है ? ये बात सुनकर में सोचने को मजबूर हुआ की क्या ये सच मच हमारा आहार है? और इसके बारे में शोध करने का निर्णय किया हमारे आदि ग्रंथो से और सच सामने आया वो चोकाने वाला था 

सर्व प्रथम हम बात करे वाल्मीकि रामायण की तो किसी भी जगह ये लिखा हुआ नहीं है उस जमाने में कोई भी राजा मासाहारी था भगवान् राम और महाराज दशरथ का शिकार पर जाने का व् शिकार करने का प्रसंग जरुर आता है तो  वे शिकारी थे पे क्या जरूरी है की शिकार किया जाए तो उसका आहार भी जरूरी हो नहीं शिकार सिर्फ हिसक जानवरों का किया करते थे या फिर सोन्दर्य प्रसाधन के लिए हिरन आदि का . 
फिर भी आप वाल्मीकि रामायण के शुन्दर कांड के 36 वे श्लोक को पदेगे तो आपको मालूम होगा की सीता माता से  हनुमान जी मिलने के लिए अशोक वाटिका में जाते है तो सीतामाता शंका जाहिर करती है श्री राम कही मद्यपान या मांसाहार तो नहीं करने लगे है?? तबहनु मान  जी कहते की कीकोई भी  रघुवंशी न तो मद्यपान करते है और न ही मांसाहार    इससे बड़ा क्या सबूत चाहिए 

दुसरा प्रसंग हम महाभारत से लेते है क्या कही भी इस बात का जिक्र अता है क्या की दुर्योधन ने कही भी मासाहार ग्रहण किया शायद दुर्योधन से कुटिल चरित्र किसी पांडु पुत्र का नहीं था तो उनकी बात तो है अलग जब गलत चरित्र ने ही नहीं खाया तो दुसरो की बात ही क्यों करे फिर भी हम देखते है बहुत से प्रसंगो में  इसकी निंदा की गयी है जेसे 
अर्जुन ने अपने पुत्र अभिन्यु के  मरनेके बाद जयद्रथ वध के समय प्रतिघा करता है की जो पाप पर स्त्री गमन सुरा पान मांसाहार से धर्म की मर्यादा तोड़ने से जो दुर्गति प्राप्त होती है वो मरी हो अगर में जयद्रथ वध नहीं क्र पौ तो (दोर्न्न पर्व श्लोक 52 -५३ ) एसी ही प्रतिघा तिर्ग्तराज के वध के समय भी अर्जुन करते है (ड्रोन पर्व 29 से ३४ ) भीष्म पितामह ने भी कड़े शब्दों में इसकी निंदा की है की सुरा से स्पर्श किया हुया अन्न भी ग्रहण करने योग्य नहीं है (शांति पर्व सर्ग 34 श्लोक   24 )
भगवान् श्री  कृष्ण ने भी  आरण्य  पर्व के 14 सर्ग के 7 श्लोक में कहा है की जो मनुष्य शारब सेवन पर स्त्री गमन जुवा  और मांसाहार करता है उसका श्री यानि लक्ष्मी नस्ठ ही जाती है और भी बहुत से प्रसंग है जिनसे ये सिद्ध होता है की हमारे पूर्वजो ने इसको आहार नहीं माना था 

अब प्रश्न ये आता है की तो ये गलत विचार धारा हमारे बिच केसे आई ???? 

इसके लियेजब हमने इतिहास के ज्ञ्तावो और परम श्रडेय देवी सिंह सा महार साब के सान्निध्य प्राप्त हुआ तो पता चला की जब शक कुषाणों मुगलों से आक्रमण किया और हमारे पूर्वजो ने सर कटने के बाद भी उनके सेकड़ो लोगो  को मोत के घाट उतारते हुए सेकड़ो किलो मीटर तक बिना सर लड़ते हुए चले जाते थे और विजय श्री का वरन करते थे   तो वो भय भीत हुए और हमारे पंडितो को पकड़ा और उनको मौत का भय दिखा कर या लोभ लालच देकर हमारी  हार का राज पूछा तो उहूने हमारे धर्म उच्च जीवन शेली कोइसका राज बताया तब मुगलों ने इसको  नस्ठ करने का षड्यंत्र रचा जिसमें पडितो ने  कहा  की देवी को ये में  भोग चाहिए और ये देवी का प्रसाद के इसको नहीं लेने से देवी नाराज हो जायेगी तोकुछ राजपूतो  ने इसको माना और ये कुरीति बन कर  समाज में फेलने लगी और हमारे राज्य  फिर पैसा फिर जमीने सब कुछ इसने चला गया 

अंत में विधुर निति की वो बात सही होती प्रतीत होती है जिसमे खा गया है  स्त्री जुआ शिकार मधपान वचन की कतोरता धन का दुरपयोग और छोटे अपराध का कठोर दंड ये सातों दोष राजा   को सदा त्याग क्र देने चाहिए नहीं तो वो राज्य संम्पूर्ण रूप से नस्ठ हो जाता है